पंछीड़ा रे भाई वन वन क्यों डोले रे Panchhida Re Bhai Van Van Kyo Dole Re Lyrics -
।। कबीर जी के भजन ।।
कबीर गुरू ने गम कही, भेद दिया अरथाय ।
सुरत कमल के अंतरे, निराधार पढ़ पाय ।।
गुरू मूरति आगे खड़ी, द्वितीया भेद कछु नाय ।
उन्हीं को प्रणाम करूँ, सकल तिमिर मिटि जाय ।।
भजन
पंछीड़ा रे भाई तू वन - वन क्यों डोले रे ।
थारी काया रे नगरी में हरिओम
थारा हरियाला बांगा में सतनाम ।
सो हंसो बोलरे, वन - वन क्यों डोले रे।।
पंछिड़ा भाई अंधियारा में बैठो रे
थारी देहि का देवलिया में जागे जोत ।
गुरू गम झिलमिल झलके रे । वन - वन ......।।
पंछिड़ा भाई कई बैठो तरसायो रे
पीले त्रिवेणी के घाटे गंगा नीर
मनड़ा को मैलो धोले रे । वन - वन ......॥
पंछिड़ा भाई कई सूतो अकड़ायो रे ( अडकानो )
थारे गुराजी जगावे हैलां पाड़
घट केरी खिड़कियाँ ने खोले रे । वन - वन ......॥
पंछिड़ा रे भाई हीरा वाली हाटां में
( इणी ) थारी माला का मोतीड़ा बिख्या जाय रे
सूरता में नूरता पोले रे । वन - वन ......॥
संक्षिप्त भावार्थ - इस पद में संत कबीर जी ने इधर - उधर वन - वन भटकने के स्थान पर काया रूपी बाग में ही वह हंसा , ऊँ राम सतनाम के रूप में मौजूद है , परन्तु इस निर्मलता के घाट पर आने के लिए अपनी अकड़ को छोड़कर गुरु के ज्ञान प्रकाश में आया । घर की खिड़की को खोलना पड़ी तब कहीं सुबह हीरो की हार का नजारा दिखेगा जिसे शब्द रूपी मोती को सूरत निरत से पिरोकर हर मानव को एक सूत्र में प्रेम के धागे से बंध सकेगा ।