श्री गणपति स्तवन |
श्री गणपति स्तवन Shri Ganpati Stavan
॥ श्री गणपति स्तवन ॥
गणेश गणनाथ दयानिधि।
जय विघ्नेश्वर विद्या वारिधि॥
सिद्धिसदन गजवदन विनायक।
कृपासिंधु शुभदा वरदायक॥
जयति जयति जय मंगलदाता।
गौरी सुत जय बुद्धि प्रदाता॥
शंकर सुवन सुमुख जगवन्दन।
सकल अमंगल दोष निकंदन॥
अमर्ष बिदारक सुख के स्वामी।
सुनहु आर्त मम हे अंर्तयामी॥
मोदक भोग औ मूष सवारी।
नाम सुमिर सब बिघ्नें हारी॥
वक्र तुंड लम्बोदर गणपति।
प्रथम पूज्य नासौ अघ की गति॥
प्रखर बुद्धि करि देवहु दाता।
रिद्धि सिद्धि मय जग विग्याता॥
श्री वाल्मीकि कृत गणेश स्तवन
।। गणेश स्तवन ।।
श्री वाल्मीकि उवाच
चतु:षष्टिकोटयाख्यविद्याप्रदं त्वां सुराचार्यविद्याप्रदानापदानम्।
कठाभीष्टविद्यार्पकं दन्तयुग्मं कविं बुद्धिनाथं कवीनां नमामि॥
स्वनाथं प्रधानं महाविघन्नाथं निजेच्छाविसृष्टाण्डवृन्देशनाथम्।
प्रभुं दक्षिणास्यस्य विद्याप्रदं त्वां कविं बुद्धिनाथं कवीनां नमामि॥
विभो व्यासशिष्यादिविद्याविशिष्टप्रियानेकविद्याप्रदातारमाद्यम्।
महाशाक्तदीक्षागुरुं श्रेष्ठदं त्वां कविं बुद्धिनाथं कवीनां नमामि॥
विधात्रे त्रयीमुख्यवेदांश्च योगं महाविष्णवे चागमाञ्ा् शंकराय।
दिशन्तं च सूर्याय विद्यारहस्यं कविं बुद्धिनाथं कवीनां नमामि॥
महाबुद्धिपुत्राय चैकं पुराणं दिशन्तं गजास्यस्य माहात्म्ययुक्तम्।
निजज्ञानशक्त्या समेतं पुराणं कविं बुद्धिनाथं कवीनां नमामि॥
त्रयीशीर्षसारं रुचानेकमारं रमाबुद्धिदारं परं ब्रह्मपारम्।
सुरस्तोमकायं गणौघाधिनाथं कविं बुद्धिनाथं कवीनां नमामि॥
चिदानन्दरूपं मुनिध्येयरूपं गुणातीतमीशं सुरेशं गणेशम्।
धरानन्दलोकादिवासप्रियं त्वां कविं बुद्धिनाथं कवीनां नमामि॥
अनेकप्रतारं सुरक्ताब्जहारं परं निर्गुणं विश्वसद्ब्रह्मरूपम्।
महावाक्यसंदोहतात्पर्यमूर्ति कविं बुद्धिनाथं कवीनां नमामि॥
इदं ये तु कव्यष्टकं भक्तियुक्तास्त्रिसंध्यं पठन्ते गजास्यं स्मरन्त:।
कवित्वं सुवाक्यार्थमत्यद्भुतं ते लभन्ते प्रसादाद् गणेशस्य मुक्तिम्॥
॥ इति श्री वाल्मीकि कृत श्रीगणेश स्तोत्र संपूर्णम् ॥
श्री शंकराचार्य कृत श्री गणेश स्तवन
अजं निर्विकल्पं निराकारमेकं
निरानान्दमानान्दं- अद्वैतापूर्णम् ।
परं निर्गुणं निर्विशेषं निरीहं
परब्रह्म-रूपं गणेशं भजेम ।।
गुणातीतमानं चिदानन्दरुपम्
चिदाभासकं सर्वगं ज्ञानगम्यम् ।
मुनिन्ध्येयमाकाशारुपं परेशं
परब्रह्म-रूपं गणेशं भजेम ।।
जगत्-कारणं कारण- ज्ञानरुपं
सुरादिं सुखादिं गुणेशं गणेशं ।
जगद्व्यापिनं विश्र्ववन्द्यं सुरेशं
परब्रह्म-रूपं गणेशं भजेम ।।
।। श्री गणेश स्तवन ।।
घोर हा नको फार कष्टों ॥ निजहितास मे व्यर्थ गुण्टलों ॥
वारिं शीघ्र ही संसारयात्ना ॥ हे दयानिधे श्री गजानन ॥ १॥
विषय गोड हे लागले मला ॥ यामुळें ऐसे घात आपुला ॥
कलुनियाँ असे भ्रान्ति जाईना ॥ हे दयानिधे श्री गजानन ॥ २॥
त्रिविध ताप हा जाळितो अति ॥ काम क्रोध हे जान पीडिति ॥
चित्त सर्वथा स्वस्थ्य रहिना ॥ हे दयानिधे श्री गजानन ॥ ३॥
स्त्रीधनादि हें आठवीं मनीं ॥ छंद हाचि रे दिनयामिनी ॥
विसरलों तुला दीनपालना ॥ हे दयानिधे श्री गजानन ॥ ४॥
मौली पिता बंधु सोयरा ॥ तुञ्चि आमुचा निश्र्चयेन खरा ॥
शरण तूज मे विघ्नभंजना ॥ हे दयानिधे श्री गजानन ॥ ५ ॥
म्हणवितों तुझा दास या जानीं ॥ सकलवृष्पा जाणशी मनीं ॥
भक्ति मुक्ति दे भक्तपालना ॥ हे दयानिधे श्री गजानन ॥ ६॥
काय काय रे साधने करुं ॥ मैं उन्हें मूर्ख समझती हूँ ॥
विमुम्बिति मला द्वैतभावना ॥ हे दयानिधे श्री गजानन ॥ ७ ॥
विषयचिंतनें शोक पावलों ॥ देहबुद्धिनें व्यर्थ नादलों ॥
भालचंद्रजी तोडी बँधा ॥ हे दयानिधे श्री गजानन ॥ ८ ॥
गजमुखा तुझी वट पाहतां ॥ नेत्र शिनले जान तत्वतां ॥
भेटसि कधीं भ्रमनिवारणा ॥ हे दयानिधे श्री गजानन ॥ ९॥
प्रभु समर्थ तूं आमुचे शिरीं ॥ वेस्टिलयों हमें विषय पामरीं ॥
नवल हेंचि रे वत्तें मनाना ॥ हे दयानिधे श्री गजानन ॥ १० ॥
अगुण अद्वया तूं परात्परा ॥ पर नेणवे विधिहरिहरां ॥
अचल निर्मला नित्य निर्गुणा ॥ हे दयानिधे श्री गजानन ॥११॥
जीवन व्यर्थ हैं तुजवेगें ॥ स्वहित आपुलें काय साधिलें ॥
सुख नासे सदा मोह क्षमा ॥ हे दयानिधे श्री गजानन ॥ १२॥
परसुएं मलां न ये ॥ पाउलें तुझीं देखिलिं स्वयेन ॥
मांडिली असे बहुत वलगना ॥ हे दयानिधे श्री गजानन ॥१३॥
दीनबंधु हें ब्रीद आपुलें ॥ साच तूं करीं दाविं पाउलें ॥
मंगलालया विश्वजीवना ॥ हे दयानिधे श्री गजानन ॥ १४॥
नाशिवंत रे सर्व संपदा ॥ हें नको मला पाव एकदां ॥
क्षेम देउनिचित्तरंजना ॥ हे दयानिधे श्री गजानन ॥ १५॥
जातसे घडी पलयुगापरी ॥ लागली तुझी खाँति अंतरी ॥
स्वामी आपुला विरह साहिना ॥ हे दयानिधे श्री गजानन ॥ सोलह ॥
कलेल तेन करीं विनावनें किती ॥ तारिं या मारिं गणपती ॥
सकल दोष संकष्टनाशना ॥ हे दयानिधे श्री गजानन ॥ १७ ॥
आवदे मला त्रिभुवनकृति ॥ पूजुनि वारि करिन आरती ॥
धान्व पाव रे मोदकाशन ॥ हे दयानिधे श्री गजानन ॥ १८॥
हृदय कठिन तूं न करिं सर्वथा ॥ अंत अमुचा पाहसि पूरता ॥
सिद्धिवल्लभा मूषकवाहना ॥ हे दयानिधे श्री गजानन ॥ १९॥
कल्पवृक्ष तूं कामधेनु वा॥ लाविजे स्तनी जीविंच्या जीव ॥
हाचि हेत रे शेषभूषणा ॥ हे दयानिधे श्री गजानन ॥ २०॥
तारिं मोरया दुःखसागरीं ॥ गोसाविन्दन प्रार्थना करी ॥
आत्मया मनीं जान चिद्घना ॥ हे दयानिधे श्री गजानन ॥२१॥
प्रारम्भीं विनति करुं गणपती विद्यादयासागरा ॥
अज्ञानत्व हरोनि बुद्धि मति दे आराध्य मोरेश्वरा ॥
चिंता क्लेश दरिद्र दुःख अवघें देशान्तरा पथवीं ॥
हेरम्बा गणनायका गजमुखा भक्तां बहु तोषवीं ॥
॥ इति गोसाविनंदन विरचितं श्री गणेश स्तवन सम्पूर्णं ॥